'नो मीट, नो कोरोना वायरस' जैसे ट्रेडिंग हैशटैग्स के पीछे क्या है सच्चाई

कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। भारत में भी कोविड-19 के मामले बढ़ रहे हैं। लोगों के मन में रोज नए-नए सवाल उठ रहे हैं। ऐसा ही एक सवाल सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहे हैशटैग 'नो मीट, नो कोरोना वायरस' को देखकर लोगों के मन में उठ रहा है कि इसमें कितनी सच्चाई है। इसके अलावा लॉकडाउन के बावजूद कोरोना वायरस के केस लगातार बढ़ रहे हैं। क्या लॉकडाउन से कोई फायदा नहीं हो रहा है? ऐसे ही सवालों के जवाब देने के लिए हम विश्व स्वास्थ्य संगठन, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और विशेषज्ञों द्वारा दी गई कोरोना से जुड़ी जानकारियों को आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। 



1-केस लगातार बढ़ रहे हैं। क्या लॉकडाउन से कोई फायदा नहीं हो रहा है?
जवाब-
टेस्टिंग बढ़ने से कोरोना के पॉजिटिव मामले भी बढ़े हैं, पर लॉकडाउन 2.0 में लॉकडाउन 1.0 के मुकाबले मामलों के बढ़ने की दर आधी से भी कम हुई है। पहले लॉकडाउन के दौरान मामलों की दैनिक वृद्धि दर 16 प्रतिशत थी, जबकि दूसरे लॉकडाउन के दौरान यह 6.6 फीसदी के आसपास रही। वहीं मृत्यु दर में भी कमी आई है। यह लॉकडाउन 1.0 के दौरान 60 फीसदी (एक दिन की सर्वोच्च दर) तक पहुंच गई थी, वहीं लॉकडाउन 2.0 में यह 7 फीसदी के करीब आ गई। साथ ही, रिकवरी दर में भी 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
 
2-इन दिनों ‘नो मीट, नो कोरोना वायरस’ जैसे हैशटैग्स ट्रेंड कर रहे हैं। क्या ये बात सही है?
जवाब-
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के प्रमुख जीएसजी अयंगर के अनुसार, चिकेन, मटन या मछली से कोरोना संक्रमण होना एक भ्रांति है। अब तक किसी शोध में यह बात साबित नहीं हुई है कि चिकेन खाने से कोविड-19 संक्रमण हो सकता है। ‘यूरोपियन फूड सेफ्टी एसोसिएशन’ ने भी एक लेख साझा किया है, जिसमें कहा गया है कि इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि कोरोना वायरस का संक्रमण खाने की चीजों से फैलता है। हां, इन्हें खाने से पहले अच्छी तरह साफ कर लेना बेहद जरूरी है।
 
3- क्या वैश्विक महामारी के दौरान मानसिक समस्याएं बढ़ जाती हैं?
जवाब-
वैश्विक महामारी से जुड़ी बातों, जैसे कि सोशल डिस्टेंसिंग, आइसोलेशन और क्वारंटीन के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक नुकसान के कारण उदासी, चिंता, भय, क्रोध, हताशा, अपराधबोध, बेचारगी, अकेलापन और घबराहट जैसी मानसिक समस्याएं पैदा होती हैं। दुर्भाग्य से ये बातें मरीजों और डॉक्टरों दोनों को प्रभावित कर रही हैं। ऐसी बातें पहले की महामारियों में भी देखने को मिली हैं। 2003 में सार्स के दौरान और उसके बाद हांगकांग में बड़ी उम्र के लोगों में आत्महत्या की दर बढ़ गई थी।